लेखनी कहानी -09-Mar-2023- पौराणिक कहानिया
अध्याय 26
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विनय-अगर आप
मुझ पर इतनी
रियायत करें कि
मुझे साहब के
सामने जाने पर
मजबूर न करें,
तो मैं आपका
हुक्म मानने को
तैयार हूँ।
दारोगा-कैसे बेसिर-पैर की
बातें करते हो
जी, मेरा कोई
अख्तियार है? तुम्हें
जाना पड़ेगा।
विनय ने बड़ी
नम्रता से कहा-मैं आपका
यह एहसान कभी
न भूलँगा।
किसी दूसरे अवसर पर
दारोगाजी शायद जामे
से बाहर हो
जाते, पर आज
कैदियों को खुश
रखना जरूरी था।
बोले-मगर भाई,
यह रिआयत करनी
मेरी शक्ति से
बाहर है। मुझ
पर न जाने
क्या आफत आ
जाए। सरदार साहब
मुझे कच्चा ही
खा जाएँगे, मेम
साहब को जेलों
को देखने की
धाुन है। बड़े
साहब तो कर्मचारियों
के दुश्मन हैं,
मेम साहब उनसे
भी बढ़-चढ़कर
हैं। सच पूछो
तो जो कुछ
हैं, वह मेम
साहब ही हैं।
साहब तो उनके
इशारों के गुलाम
हैं। कहीं वह
बिगड़ गईं, तो
तुम्हारी मियाद तो दूनी
हो ही जाएगी,
हम भी पिस
जाएँगे।
विनय-मालूम होता है,
मेम साहब का
बड़ा दबाव है।
दारोगा-दबाव! अजी, यह
कहो कि मेम
साहब ही पोलिटिकल
एजेंट हैं। साहब
तो केवल हस्ताक्षर
करने-भर को
हैं। नजर-भेंट
सब मेम साहब
के ही हाथों
में जाती है।
विनय-आप मेरे
साथ इतनी रियाअत
कीजिए कि मुझे
उनके सामने जाने
के लिए मजबूर
न कीजिए। इतने
कैदियों में एक
आदमी की कमी
जान ही न
पड़ेगी। हाँ, अगर
वह मुझे नाम
लेकर बुलाएँगी, तो
मैं चला जाऊँगा।
दारोगा-सरदार साहब मुझे
जीता निगल जाएँगे।
विनय-मगर करना
आपको यही पड़ेगा।
मैं अपनी खुशी
से कदापि न
जाऊँगा।
दारोगा-मैं बुरा
आदमी हूँ, मुझे
दिक मत करो।
मैंने इसी जेल
में बड़े-बड़ों
की गरदनें ढीली
कर दी हैं।
विनय-अपने को
कोसने का आपको
अधिाकार है; पर
आज जानते हैं,
मैं जब्र के
सामने सिर झुकानेवाला
नहीं हूँ।
दारोगा-भाई, तुम
विचित्रा प्राणी हो, उसके
हुक्म से सारा
शहर खाली कराया
जा रहा है,
और फिर भी
अपनी जिद किए
जाते हो। लेकिन
तुम्हें अपनी जान
भारी है, मुझे
अपनी जान भारी
नहीं है।
विनय-क्या शहर
खाली कराया जा
रहा है? यह
क्यों?
दारोगा-मेम साहब
का हुक्म है,
और क्या, जसवंतनगर
पर उनका कोप
है। जब से
उन्होंने यहाँ की
वारदातें सुनी हैं,
मिजाज बिगड़ गया
है। उनका वश
चले तो इसे
खुदवाकर फेंक दें।
हुक्म हुआ है
कि एक सप्ताह
तक कोई जवान
आदमी कस्बे में
न रहने पाए।
भय है कि
कहीं उपद्रव न
हो जाए, सदर
से मदद माँगी
गई है।
दारोगा ने स्थिति
को इतना बढ़ाकर
बयान किया, इससे
उनका उद्देश्य विनयसिंह
पर प्रभाव डालना
था और उनका
उद्देश्य पूरा हो
गया। विनयसिंह को
चिंता हुई कि
कहीं मेरी अवज्ञा
से क्रुध्द होकर
अधिाकारियों ने मुझ
पर और भी
अत्याचार करने शुरू
किए और जनता
को यह खबर
मिली, तो वह
बिगड़ खड़ी होगी
और उस दशा
में मैं उन
हत्याओं के पाप
का भागी ठहरूँगा।
कौन जाने, मेरे
पीछे मेरे सहयोगियों
ने लोगों को
और भी उभार
रखा हो, उनमें
उद्दंड प्रकृति के युवकों
की कमी नहीं
है। नहीं, हालत
नाजुक है। मुझे
इस वक्त धौर्य
से काम लेना
चाहिए। दारोगा से पूछा-मेम साहब
यहाँ किस वक्त
आएँगी?
दारोगा-उनके आने
का कोई ठीक
समय थोड़े ही
है। धाोखा देकर
किसी ऐसे वक्त
आ पहुँचेंगी, जब
हम लोग गाफिल
पड़े होंगे। इसी
से तो कहता
हूँ कि कमरे
की सफाई कर
डालो; कपड़े बदल
लो; कौन जाने,
आज ही आ
जाएँ।
विनय-अच्छी बात है;
आप जो कुछ
कहते हैं, सब
कर लूँगा। अब
आप निश्ंचित हो
जाएँ।
दारोगा-सलामी के वक्त
आने से इनकार
तो न करोगे?
विनय-जी नहीं;
आप मुझे सबसे
पहले ऑंगन में
मौजूद पाएँगे।
दारोगा-मेरी शिकायत
तो न करोगे?
विनय-शिकायत करना मेरी
आदत नहीं, इसे
आप खूब जानते
हैं।
दारोगा चला गया।
ऍंधोरा हो चला
था। विनय ने
अपने कमरे में
झाड़ू लगाई, कपड़े
बदले, कम्बल बिछा
दिया। वह कोई
ऐसा काम नहीं
करना चाहते थे,
जिससे किसी की
दृष्टि उनकी ओर
आकृष्ट हो; वह
अपनी निरपेक्षता से
हुक्काम के संदेहों
को दूर कर
देना चाहते थे।
भोजन का समय
आ गया, पर
मिस्टर क्लार्क ने पदार्पण
न किया। अंत
मेंं निराश होकर
दारोगा ने जेल
के द्वार बंद
कराए और कैदियों
को विश्राम करने
का हुक्म दिया।
विनय लेटे, तो
सोचने लगे-सोफी
का यह रूपांतर
क्योंकर हो गया?
वही लज्जा और
विनय की मूर्ति,
वही सेवा और
त्याग की प्रतिमा
आज निरंकुशता की
देवी बनी हुई
है! उसका हृदय
कितना कोमल था,
कितना दयाशील, उसके
मनोभाव कितने उच्च और
पवित्रा थे, उसका
स्वभाव कितना सरल था,
उसकी एक-एक
दृष्टि हृदय पर
कालिदास की एक-एक उपमा
की-सी चोट
करती थी, उसके
मुँह से जो
शब्द निकलता था,
वह दीपक की
ज्योति की भाँति
चित्ता को आलोकित
कर देता था।
ऐसा मालूम होता
था, केवल पुष्प-सुगंधा से उसकी
सृष्टि हुई है,
कितना निष्कपट, कितना
गम्भीर, कितना मधाुर सौंदर्य
था! वह सोफी
अब इतनी निर्दय
हो गई है!
चारों ओर सन्नाटा
छाया हुआ था,
मानो कोई तूफान
आनेवाला है। आज
जेल के ऑंगन
में दारोगा के
जानवर न बँधो
थे, न बरामदों
में घास के
ढेर थे। आज
किसी कैदी को
जेल-कर्मचारियों के
जूठे बरतन नहीं
माँजने पड़े, किसी ने
सिपाहियों की चम्पी
नहीं की। जेल
के डॉक्टर की
बुढ़िया महरी आज
कैदियों को गालियाँ
नहीं दे रही
थी और दफ्तर
में कैदियों से
मिलनेवाले संबंधिायाेंं के नजरानों
का बाँट-बखरा
न होता था।
कमराेंं में दीपक
थे, दरवाजे खुले
रखे गए थे।
विनय के मन
में प्रश्न उठा,
क्यों न भाग
चलूँ? मेरे समझाने
से कदाचित् लोग
शांत हो जाएँ।
सदर सेना आ
रही है, ज़रा-सी बात
पर विप्लव हो
सकता है। यदि
मैं शांतिस्थापना करने
में सफल हुआ,
तो वह मेरे
इस अपराधा का
प्रायश्चित्ता होगा। उन्होंने दबी
हुई नजरों से
जेल की ऊँची
दीवारों को देखा,
कमरे से बाहर
निकलने की हिम्मत
न पड़ी। किसी
ने देख लिया
तो? लोग यही
समझेंगे कि मैं
जनता को भड़काने
के इरादे से
भागने की चेष्टा
कर रहा था।
इस हैस-बैस
में रात कट
गई। अभी कर्मचारियों
की नींद भी
न खुली थी
कि मोटर की
आवाज ने आगंतुकाें
की सूचना दी।
दारोगा,डॉक्टर, वार्डर, चौकीदार
हड़बड़ाकर निकल पड़े।
पहली घंटी बजी,
कैदी मैदान में
निकल आए, उन्हें
कतारों में खड़े
होने का हुक्म
दिया गया,और
उसी क्षण सोफिया,
मिस्टर क्लार्क और सरदार
नीलकंठ जेल में
दाखिल हुए।